अग्निहोत्र विधि
अव हम नित्यकर्म का तृतीय प्रश्न का उत्तर देते है।
पञ्चभू संस्कार
पञ्चभू संस्कार जिसे प्राचीन गृह सूत्र मे लक्षणवृत भी कहते है उसको सभी संस्कारादि मै अग्नि स्थापना करना से पूर्व करना चाहिये। यह इसप्रकार है :
१. यज्ञकुण्ड में स्थित धूलि को साफ करना।
२. कुण्ड को गोबर और जल से लीपना।
३. व्रज (जो काष्ठ का खंड होता है ) या उसके आभाव मे स्रुवमुल से यज्ञकुण्ड के बरावर तीन रेखाये पूर्व से उत्तर तक खींचना चाहिये।
४. व्रजसे खींची गई रेखाओं से मिट्टी को अङ्गुष्ठा और अनामिका से अलग करे।
५. जल से यज्ञकुण्ड को छिडके।
अग्निहोत्र पात्र
१. स्रुव -२
२. आज्यस्थाली -२
३. प्रोक्षणी -१
४. प्रणिता -१
५. पञ्च पात्र और आचमनी-२ (यह गृह के जितना लोक होंगे उतने लोक केलिये एक एक )
६. अग्निपात्र -१
७. चिमिटा -१
८. वज्र -१
९. आसान -२ (यह गृह के जितना लोक होंगे उतने लोक केलिये एक एक )
१०. कुशा
११. जल
१२. आज्य
१३. अखण्डित चावल
१४. समिधा की एक टोकरी
१५. चुल्ला
१६. चावल रखने केलिए वड़ा पात्र (वड़ा तन्दुल पात्र )
१७. छोटेतन्दुल पात्र (यजमान और यजमान की पत्नी को छोड़ अन्य लोक होंगे उतने लोक केलिये एक एक)
१८. स्रुच -१
१८. स्रुच -१
१९. प्रक्षालन पात्र १
कुछ सामान्य नियम
१. अखण्डित चावल को वड़ा तन्दुल पात्र में पानी लेकर तीन वार जल मे धोना चाहिए।
२. फिर उसमे कुछ घी उसमे मिलाना चाहिए।
३. फिर उसको छोटेतन्दुल पात्रमे थोडा थोडा रखना चाहिए।
४. स्रुव और प्रोक्षणी को साफ करके अपनी दाहिने भाग मे रखे।
५. आज्य को आज्यस्थाली मे लेकर चुल्ला मे गरम कर लेना चाहिए। अगर आज्य मे कुछ गिरा होतो कुशा से निकल देना चाहिए।
६. उसी तरह प्रणिता मे जल लेकर यज्ञकुण्ड के पास रखना चाहिए।
७. पञ्चपात्रमे थोडा थोडा जल रखना चाहिए।
८. यजमान और यजमान की पत्नी दोनों यज्ञकुण्ड के पश्चिम दिशा मे बैठे। वाकी सब यज्ञकुण्ड के चारो और बैठे जाये।
दीपक प्रज्वलन मन्त्र
ॐ अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृत्विज॑म् । होता॑रं रत्न॒धात॑मम् ॥ऋ १. १. १.
इस मन्त्र से सवसे पहले अग्निको दियासिलाई से दीपक को प्रज्वलित करे। और उसको यज्ञकुण्ड के आग्नेय कोण के पास रख ले।
आचमन मन्त्र इसको हाथ के बह्मतीर्थ से ग्रहण करना चाहिए। ग्रहण करते समये किसी भी तरह की शब्द नहीं होना चाहिए।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥ १। इससे प्रथम।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा॥ २ । इससे दूसरा।
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयातं स्वाहा॥ ३। इससे तीसरा।
इसके वाद दो वार अंगूठे के मूल से ओठों को पोछे , फिर हाथ प्रक्षालन पात्र मैं धो डाले।
ॐ नसोर्मे प्राणऽस्तु॥ (दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगुष्ठे से नासिका के दो छिद्र मे)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षरस्तु॥ (दाहिने हाथ की मध्यमा और अंगुष्ठे से दोनों आँखों मे)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥ (दाहिने हाथ की अनामिका और अंगुष्ठे से दोनों कानो मे)
ॐ बाह्वर्मे बलमस्तु॥ (दाहिने हाथ की पांच अंगुलियों को मिलकर दोनों भुजाओ मे)
ॐ उर्वोर्मे ओजोऽस्तु॥ (दाहिने हाथ की पांच अंगुलियों को मिलकर जांघो मे)
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनुम्तन्वा मे सह सन्तु॥ (दाहिने हाथ की पांच अंगुलियों को मिलकर पूरा शरीर मे)
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा॥ २ । इससे दूसरा।
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयातं स्वाहा॥ ३। इससे तीसरा।
इसके वाद दो वार अंगूठे के मूल से ओठों को पोछे , फिर हाथ प्रक्षालन पात्र मैं धो डाले।
अंग स्पर्श मंत्र
ॐ वाङ् म आस्येऽस्तु॥ (दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका से मुख मे)
अब दाहिना हाथ से पञ्च पात्र से आचमनी के माध्यम से बाई हाथेली में थोडा जल लेकर दाहिने हाथ अंगुलियों से जल के द्वारा स्पर्श करते हुए इन्द्रियों की स्थिरता एवं दृढ़ता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करे।
ॐ नसोर्मे प्राणऽस्तु॥ (दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगुष्ठे से नासिका के दो छिद्र मे)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षरस्तु॥ (दाहिने हाथ की मध्यमा और अंगुष्ठे से दोनों आँखों मे)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥ (दाहिने हाथ की अनामिका और अंगुष्ठे से दोनों कानो मे)
ॐ बाह्वर्मे बलमस्तु॥ (दाहिने हाथ की पांच अंगुलियों को मिलकर दोनों भुजाओ मे)
ॐ उर्वोर्मे ओजोऽस्तु॥ (दाहिने हाथ की पांच अंगुलियों को मिलकर जांघो मे)
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनुम्तन्वा मे सह सन्तु॥ (दाहिने हाथ की पांच अंगुलियों को मिलकर पूरा शरीर मे)
वाम हाथों का जल प्रक्षालन पात्र मैं डाल दैं। फिर दाहिना हाथ से आचमनी पात्र से चमास के माध्यम से बाई हाथेली में थोडा जल लेकर हाथ प्रक्षालन पात्र मैं धो लैं।
इस मन्त्र का उच्चारण करके कपूर को अग्निपात्र मे रखकर उसमे छोटी छोटी लकड़ी लगाके यजमान उस पात्र को हाथों से उठाकर यदि गर्म होतो अग्निपात्र को चिमटे से पकड़कर खड़े हो कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे।
ॐ भूर्भुवः॒ स्व᳕र्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव॑ वरि॒म्णा । तस्या॑स्ते पृथिवी देवयजनि पृ॒ष्ठे᳕ऽग्निम॑न्ना॒दम॒न्नाद्या॒या द॑धे ॥ (यजु अ ३। म. ५)
अग्नि-ज्वालन-मन्त्र
ॐ भूर्भुवः स्वः ॥इस मन्त्र का उच्चारण करके कपूर को अग्निपात्र मे रखकर उसमे छोटी छोटी लकड़ी लगाके यजमान उस पात्र को हाथों से उठाकर यदि गर्म होतो अग्निपात्र को चिमटे से पकड़कर खड़े हो कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे।
ॐ भूर्भुवः॒ स्व᳕र्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव॑ वरि॒म्णा । तस्या॑स्ते पृथिवी देवयजनि पृ॒ष्ठे᳕ऽग्निम॑न्ना॒दम॒न्नाद्या॒या द॑धे ॥ (यजु अ ३। म. ५)
इस मन्त्र से यज्ञकुण्ड के मध्य में अग्नि पात्र को रख कर , उसमे छोटी छोटी लकड़ी और कपूर अदि से अगला मन्त्र पढ़कर अग्नि को काष्ठ में प्रविष्ठ कराए।
ॐ ॐ उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्ते सᳬंसृ॑जेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ अध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत ॥(यजु अ १५ । म. ५४ )
ॐ अग्निर्वर्चो योतिर्वर्चो स्वाहा ॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ अ॒ग्निर्ज्योति॒र्ज्योति॑रग्निः॒ स्वाहा॑॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥(मौन आहुति )
ॐ स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जू रात्र्येन्द्र॑वत्या । जु॒षा॒णोऽअ॒ग्निर्वे॑तु॒ स्वाहा॑ ॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥
उभय कालीन आहुतिया
ॐ भूरग्नये प्राणाय स्वाहा ॥ इदमग्नये प्राणाय(- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा॥ इदं वायवेऽपानाय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा ॥इदमादित्याय व्यानाय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः (- न मम ) (-इदं न मम )॥(तै. आ. १०। २ )
ॐ आपो ज्योतिरसो मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा ॥ इदमद्भ्यो ज्योतिषे रसायामृताय ब्रह्मणे (- न मम ) (-इदं न मम )॥(तै. आ. १०। १५ )
ॐ यां मे॒धां दे॑वग॒णाः पि॒तर॑श्चो॒पास॑ते । तया॒ माम॒द्य मे॒धायाऽग्ने॑ मे॒धावि॑नं कुरु॒ स्वाहा॑ ॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥(यजु अ ३२ ।म. १४ )
ॐ विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव ।यद् भ॒द्रन्तन्न॒ऽआ सु॑व॒ स्वाहा॑ ॥ इदं (- न मम ) (-इदं न मम )॥(यजु अ ३० ।म. ३ )
ॐ ॐ उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्ते सᳬंसृ॑जेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ अध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत ॥(यजु अ १५ । म. ५४ )
समिदाधान मन्त्र
जव अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे , तब आठ अङ्गुल की तीन समिधाये घृत में डुबाकर उनमे से नीचे लिखे मन्त्र से एक एक समिधा अग्नि में चढ़ावे। वे मन्त्र इस प्रकार है -
ॐ स॒मिधा॒ग्निं दु॑वस्यत घृ॒तैर्बो॑धय॒ताति॑थिम्। आस्मि॑न् ह॒व्या जु॑होतन॒ स्वाहा॑ ॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस से प्रथम (यजु अ ३।म. १)
ॐसुस॒मिद्धाय शो॒चिषे॑ घृ॒तं ती॒व्रं जु॑होतन। अ॒ग्नये॑ जा॒तवे॑दसे॒ स्वाहा॑ ॥ इदमग्नये जातवेदसे (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस से दूसरा (यजु अ ३। म. २ )
ॐ तं त्वा॑ स॒मिद्भि॑रङ्गिरो घृतेन॑ वर्द्धयामसि। बृ॒हच्छो॑चा यवीष्ठ्य॒ स्वाहा॑॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस से तीसरा (यजु अ ३। म.३)
पर्युक्षण मन्त्र
अग्निकुण्ड के चारो और निम्न लिखित मन्त्र से पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में प्रणिता से जल लेकर प्रोक्षणी से जल सिंचन करे।
ॐ अदितेऽनुमन्यस्व ॥ इस मन्त्र से पूर्व में दक्षिण से उत्तर की और।
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व॥ इस मन्त्र से पश्चिम में दक्षिण से उत्तर की और।
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व ॥ इस मन्त्र से उत्तर में पूर्व से पश्चिम की और।
ॐ देव॑ सावितः॒ प्रसु॑व य॒ज्ञं प्रसु॑व य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य । दि॒व्य ग॑न्ध॒र्वः के॑त॒पूः केत॑ न्नः पुनातु व॒चस्पति॒र्वाच॑ न्नः सदतु॑ ॥ इस मन्त्र से दक्षिण में दक्षिणावर्तन से चारो और क्रिया करना चाहिए।
ॐ इन्द्राय स्वाहा॥ इदं इन्द्राय (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस मंत्र से अग्नि के मध्य उत्तर में आहुति दे।
(इस मंत्र से दोनों आधार को अग्नि के मध्य में पश्चिम से पूर्व की और सीधा रेखा में देना चाहिए। मध्य में आज्य की धारा ना टूटनी चाहिए ना आपस में मिलाना चाहिए।)
ॐ सोमाय स्वाहा॥ इदं सोमाय (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस मन्त्र से अग्निकुण्ड के दक्षिण भाग की अग्नि में या ईशान कोण में आहुति दे।
ॐ सूर्यो॒ वर्चो॒ ज्योति॒र्वर्चः॒ स्वाहा॑ ॥ इदं सूर्याय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व॥ इस मन्त्र से पश्चिम में दक्षिण से उत्तर की और।
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व ॥ इस मन्त्र से उत्तर में पूर्व से पश्चिम की और।
ॐ देव॑ सावितः॒ प्रसु॑व य॒ज्ञं प्रसु॑व य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य । दि॒व्य ग॑न्ध॒र्वः के॑त॒पूः केत॑ न्नः पुनातु व॒चस्पति॒र्वाच॑ न्नः सदतु॑ ॥ इस मन्त्र से दक्षिण में दक्षिणावर्तन से चारो और क्रिया करना चाहिए।
निम्न लिखित मन्त्र से आज्यस्थाली में से स्रुवा को भरकर दाहिने हाथ की अंगूठा, मध्यमा और अनामिका से स्रुवा को पकड़कर पाञ्च घृताहुति दे। (यह जहाँ भी स्रुवा से आहुति दिया जायेगा सभी स्थानों में दाहिने हाथ की अंगूठा, मध्यमा और अनामिका से स्रुवा को पकड़कर आहुति दे )
ॐ अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा ॥ इदमग्नये जातवेदसे (- न मम ) (-इदं न मम )॥
आधाराहुति
ॐ प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये (- न मम ) (-इदं न मम )॥ (मौन आहुति ) इस मंत्र से अग्नि के मध्य दक्षिण में आहुति दे। ॐ इन्द्राय स्वाहा॥ इदं इन्द्राय (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस मंत्र से अग्नि के मध्य उत्तर में आहुति दे।
(इस मंत्र से दोनों आधार को अग्नि के मध्य में पश्चिम से पूर्व की और सीधा रेखा में देना चाहिए। मध्य में आज्य की धारा ना टूटनी चाहिए ना आपस में मिलाना चाहिए।)
आज्यभागहुति
ॐ अग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस मन्त्र से अग्निकुण्ड के उत्तर भाग की अग्नि में या आग्नेय कोण में आहुति दे।ॐ सोमाय स्वाहा॥ इदं सोमाय (- न मम ) (-इदं न मम )॥ इस मन्त्र से अग्निकुण्ड के दक्षिण भाग की अग्नि में या ईशान कोण में आहुति दे।
प्रातः कालीन आहुतिया
ॐ सूर्यो॒ ज्योति॒र्ज्योतिः॒ सूर्यः॒ स्वाहा॑॥ इदं सूर्याय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
निम्न लिखित मन्त्रो से प्रातः कालीन आहुतिया देवे। (अव यज्ञमान और उसके पत्नी को छोडकर वाकी सव व्यक्ति अखण्डित चावलों में घृत मिला हुआ तन्दुल पत्रों को लेकर दाहिना हाथो की अंगूठा, मध्यमा और अनामिका से अखण्डित चावलों को यज्ञकुण्ड में आहुति दे। यह प्रातः कालीन आहुतिया से लेकर उभय कालीन प्रार्थना मंत्र आहुतिया तक दिया जाता है )
ॐ सूर्यो॒ वर्चो॒ ज्योति॒र्वर्चः॒ स्वाहा॑ ॥ इदं सूर्याय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ ज्योतिः॒ सूर्यः॒ सूर्यो॒ ज्योतिः॒ स्वाहा॑॥ इदं सूर्याय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जूरु॒षेसेन्द्र॑वत्या । जु॒षा॒णः सूर्यो॑ वेतु॒ स्वाहा॑॑क॥ इदं सूर्याय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जूरु॒षेसेन्द्र॑वत्या । जु॒षा॒णः सूर्यो॑ वेतु॒ स्वाहा॑॑क॥ इदं सूर्याय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
सायं कालीन आहुतिया
ॐ अ॒ग्निर्ज्योति॒र्ज्योति॑रग्निः॒ स्वाहा॑॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥
निम्न लिखित मन्त्रो से सायं कालीन आहुतिया देवे
ॐ अग्निर्वर्चो योतिर्वर्चो स्वाहा ॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ अ॒ग्निर्ज्योति॒र्ज्योति॑रग्निः॒ स्वाहा॑॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥(मौन आहुति )
ॐ स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जू रात्र्येन्द्र॑वत्या । जु॒षा॒णोऽअ॒ग्निर्वे॑तु॒ स्वाहा॑ ॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥
उभय कालीन आहुतिया
निम्न लिखित मन्त्रो से प्रातः काल एवं सायं काल दोनों समय प्रातः कालीन एवं सायं कालीन आहुतियो के पश्चात आहुतिया देवे। यदि किसि कारण से एक ही समय यज्ञ करना हो तो प्रातः कालीन एवं सायं कालीन आहुतिया इकट्ठी देकर उभय कालीन आहुतिया देवे। वे इस प्रकार है।
ॐ भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा॥ इदं वायवेऽपानाय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा ॥इदमादित्याय व्यानाय (- न मम ) (-इदं न मम )॥
ॐ भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः (- न मम ) (-इदं न मम )॥(तै. आ. १०। २ )
ॐ आपो ज्योतिरसो मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा ॥ इदमद्भ्यो ज्योतिषे रसायामृताय ब्रह्मणे (- न मम ) (-इदं न मम )॥(तै. आ. १०। १५ )
उभय कालीन प्रार्थना मंत्र आहुतिया
पुनः निम्न लिखित मन्त्रो से प्रातः काल एवं सायं काल दोनों समय प्रातः कालीन, सायं कालीन एवं उभय कालीन आहुतियो के पश्चात उभय कालीन प्रार्थना मंत्रो से आहुतिया देवे। यदि किसि कारण से एक ही समय यज्ञ करना हो तो प्रातः कालीन एवं सायं कालीन आहुतिया इकट्ठी देकर उभय कालीन आहुतिया और उभय कालीन प्रार्थना मंत्रो आहुतिया की देवे। वे इस प्रकार है। ॐ यां मे॒धां दे॑वग॒णाः पि॒तर॑श्चो॒पास॑ते । तया॒ माम॒द्य मे॒धायाऽग्ने॑ मे॒धावि॑नं कुरु॒ स्वाहा॑ ॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥(यजु अ ३२ ।म. १४ )
ॐ विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव ।यद् भ॒द्रन्तन्न॒ऽआ सु॑व॒ स्वाहा॑ ॥ इदं (- न मम ) (-इदं न मम )॥(यजु अ ३० ।म. ३ )
ॐ अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑रा॒येऽअ॒स्मान विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान् । यु॒यो॒ध्य᳕स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठान्ते॒ नम॑ऽउक्तिं विधेम स्वाहा॑॥ इदमग्नये (- न मम ) (-इदं न मम )॥(यजु अ ४० ।म. १६ )
ॐ अदितेऽनुमंस्थाः॥ इस मन्त्र से पूर्व में दक्षिण से उत्तर की और।
ॐ अनुमतेऽनुमंस्थाः॥इस मन्त्र से पश्चिम में दक्षिण से उत्तर की और।
ॐ सरस्वत्यनुमंस्थाः॥ इस मन्त्र से उत्तर में पूर्व से पश्चिम की और।
ॐदेव॑ सावितः॒ प्रासा॑वी य॒ज्ञं प्रासा॑वी य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य । दि॒व्य ग॑न्ध॒र्वः के॑त॒पूः केत॑ न्नः पुनातु व॒चस्पति॒र्वाच॑ न्नः सदतु॑ ॥ इस मन्त्र से दक्षिण में दक्षिणावर्तन से चारो और क्रिया करना चाहिए।
उस के वाद प्रदक्षिण द्वारा यज्ञकुण्ड के अग्नि को परिक्रमा ३ वार करे।
इस प्रकार अग्निहोत्र विधि या देवयज्ञ विधि समाप्त होता है।
प्रजापत्याहुति मन्त्र
ॐ प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये (- न मम ) (-इदं न मम )॥ (मौन आहुति ) इस मंत्र से अग्नि के मध्य में आहुति दे।
अनुपय्यक्ष्य मन्त्र
अग्निकुण्ड के चारो और निम्न लिखित मन्त्र से पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में प्रणिता से जल लेकर प्रोक्षणी से जल सिंचन करे।ॐ अदितेऽनुमंस्थाः॥ इस मन्त्र से पूर्व में दक्षिण से उत्तर की और।
ॐ अनुमतेऽनुमंस्थाः॥इस मन्त्र से पश्चिम में दक्षिण से उत्तर की और।
ॐ सरस्वत्यनुमंस्थाः॥ इस मन्त्र से उत्तर में पूर्व से पश्चिम की और।
ॐदेव॑ सावितः॒ प्रासा॑वी य॒ज्ञं प्रासा॑वी य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य । दि॒व्य ग॑न्ध॒र्वः के॑त॒पूः केत॑ न्नः पुनातु व॒चस्पति॒र्वाच॑ न्नः सदतु॑ ॥ इस मन्त्र से दक्षिण में दक्षिणावर्तन से चारो और क्रिया करना चाहिए।
उस के वाद प्रदक्षिण द्वारा यज्ञकुण्ड के अग्नि को परिक्रमा ३ वार करे।
इस प्रकार अग्निहोत्र विधि या देवयज्ञ विधि समाप्त होता है।
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