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अथ वर्णसमाम्नाय: प्रथमः अध्यायः प्रथमः पादः अथातो वर्णक्रमः ॥१॥ तत्र: स्वराः प्रथमम् ॥२॥ अ आ आ३ ॥ ३॥ इ ई ई३  ॥४॥ उ ऊ ऊ३ ॥५॥ ऋ ॠ ॠ३ ॥६॥  ऌ ॡ३  ॥७॥ अथ सन्ध्यक्षराणि ॥८॥ ए ए३ ॥९॥ ऐ ऐ३  ॥१०॥ ओ ओ३ ॥११॥ औ औ३  ॥१२॥ इति स्वराः  ॥१३॥ अथ व्यञ्जनानि  ॥१४॥ कखगघङा कवर्ग:  ॥१५॥ चछजझञा चवर्ग:  ॥१६॥ टठडढणा टवर्ग:  ॥१७॥ तथदधना तवर्ग:  ॥१८॥ पफबभमा पवर्ग:  ॥१९॥ इति स्पर्शा:   ॥२०॥ अथान्त:स्था:  ॥२१॥ यरलवा  ॥२२॥ अथोष्माण:  ॥२३॥ शषसहा  ॥२४॥ अथायोगवाहा:  ॥२५॥ अ: विसर्जनीय:  ॥२६॥ ᳲक जिह्वामुलीय:  ॥२७॥ ᳲप उपध्मानीय:  ॥२८॥ अ॰ अनुस्वार:  ॥२९॥ कुँ खुँ गुँ घुँ यमा:  ॥३०॥ एते त्रिषष्टिवर्णा:  ॥३१॥ हुँ नासिक्य:  ॥३२॥ दुःस्पृष्टः ळकारः एकेषाम् ॥३३॥ एते चतुर्षष्टि:  ॥३४॥ पञ्चषष्ठिः एकेषाम् ॥३५॥ द्वितीय: पाद: वर्ण: कारोत्तोर वर्णाख्य  ॥१॥ अकारव्यवेतो व्यञ्जनानाम् ॥२॥ न अयोगवाहा: ॥ ३॥ एफस्तु रस्य  ॥४॥ अकारो व्यञ्जनानाम् ॥५॥ निर्देश इतिना  ।॥६॥ स्वरैरपि...
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बलि वैश्वदेव विधि

जब पाकशाला में अन्न सिद्ध हो जाने पर उसमे से खट्टा, लवणान्न, क्षार अन्न, दालें को छोडकर शेष अन्न को हाथ की ब्रह्मतीर्थ से चूल्हे की अग्नि में निम्न  मन्त्र से आहतियां दैं- ॐ अ...

ब्रह्म यज्ञ

ब्रह्म यज्ञ पञ्च महायज्ञ में प्रथम हैं। यह दो भागों में विभाजित है - १. सन्ध्योपासना २. स्वाध्याय (वेद आदि सत् शास्त्र का अध्ययन करना। इनमें सन्ध्योपासना को प्रथम करना चाहिए। ओर स्वाध्याय को अग्निहोत्र के पश्चात करना चाहिए। स्वाध्याय शब्द का अर्थ :-   इस का दो प्रकार के अर्थ हैं। १. स्व + अध्याय (स्वस्य अध्ययनम्) अर्थात अपने आप का अध्ययन करना। २. सु +आ+अध्याय अर्थात सब उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन-मनन करना। प्रथम प्रकार का स्वाध्याय सन्ध्योपासना के अन्तर्गत आ जाता है। दूसरी प्रकार का स्वाध्याय वेद आदि उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन-मनन हो जाता है। स्वाध्याय से ज्ञान की प्राप्ति और वृद्धि होता है।

सन्ध्योपासन विधि

सन्ध्योपासना मनुष्यमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसके विना पञ्चमहायज्ञ करने की योग्यता नहीं आती। अतः प्रत्येक मनुष्य को सन्ध्या करना आवश्यक है। स्नान के पश्चात दो वस्त्र धारण करके पूर्व, उत्तर या ईशान कोण की ओर मुख कर आसन पर वैठ जाये। आसन की ग्रन्थि आपकी मुख की दिशा से ९०ं कोण मैं रहना चहिये। सन्ध्याके लिये पात्र १. आसन १ २. लोटा प्रधान जलपात्र १ ३. आचमनी १ ४. पञ्चपात्र १ ५. प्रक्षालन पात्र १ सन्ध्योपासना आरम्भ करने से पूर्व उसकी तैयारी के लिए निम्न कार्य को करनी चहियें - १. आचमन (विना मन्त्र के) २. प्राणायाम (विना मन्त्र के)                     शिखाबन्धन अव गायत्रीमन्त्र का पाठ करके सुपथगामी बुद्धि की प्रार्थना करता हुआ शिखाबन्धन करें। सावित्री मन्त्रः, विश्वामित्र ऋषिः, गायत्री छन्दः, सविता देवता, शिखाबन्धने विनियोगः ॐ तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒द॑यात् ॥ ऋ. १० ।९। ४ ॥            ...

वेदांग शिक्षा २

स्थानप्रकरणम् तावत्  तत्र स्थानम्।१। कण्ठ्याः  अकवर्गहविसर्जनीयाः ।२ एकेषां हविसर्जनियावुरस्याः ।३। जिह्व्यो जिह्वामूलीयः।४। ऋवर्ण कवर्गश्च जिह्व्यः एकेषाम् ।५। एकेषां कवर्गावर्णानुस्वारजिह्वामूलीया जिह्वया।६। एके सर्वमुखस्थानमवर्णमिति।७। एके कण्ठ्यानास्यमात्रानिति।८।  तालव्याः इचवर्गरशाः।९। मूर्धन्याः ऋटवर्गरषाः।१०। दुःस्पुष्टः अपि।११। रेफो दन्तमूलीस्थानमेकेषाम्।१२। दन्त्याः लृतवर्गलसाः।१३। एकेषां दन्तमूलस्तु तवर्गः।१४। दन्त्योष्ठ्यो वकारः।१५। एकेषाम् सृक्किणीस्थानम्।१६। ओष्ठ्याः उपूपध्मानीया।१७। नासिक्याः अनुस्वारयमाः।१८। नासिक्यः अपि।१९। एकेषां कण्ठ्यनासिक्यमनुस्वारम्।२०। एकेषां यमाश्च नासिक्य जिह्वामूलीयः।२१। कण्ठतालव्यौ ए ऐ।२२। कण्ठोष्ठ्यौ ओ औ।२३। स्वस्थाननासिकास्थानाः ङञणनमाः।२४। सन्ध्यक्षराणि द्विवर्णानि।२५। सरेफ ऋवर्णः। २६। सलकार लृवर्णः।२७। एवमेतानि स्थानानि।२७। करण प्रकारणम् करणं अपि। १। जिह्व्यतालव्यमूर्धन्यदन्त्यानां करणं जिह्वा। २। जिह्व्यानां जिह्वामूलेन। ३। तालव्यानां जिह्वामध्येन। ४। मूर्धन्यानां जिह्वोपाग्रेण। ५। करणं वा जिह्वाग्राधः। ६। दन्तानां जिह...

वेदांग शिक्षा 1

अथ वर्णाः।१। स्थानकरणप्रयत्नपरेभ्यो त्रिषष्टिः वर्णाः।२। चतुःषष्टिः एकेषाम्। ३। क्रम प्रकरणम् अथातो वर्ण क्रमः।१। तत्र स्वराः प्रथमम्।२। अ आ आ३।३। इ ई ई३।४। उ ऊ ऊ३।५। ऋ ॠ ॠ३ ।६। ऌ ॡ३।७। अथ सन्ध्यक्षराणि।७। ए ए३।८। ऐ ऐ३।९। ओ ओ३।१०। औ औ३।११। इति सन्ध्यक्षराणि।१२। इति स्वराः।१३। अथ व्यञ्जनानि।१४। तत्र स्पर्शाः प्रथमम्।१५। क ख ग घ ङ कवर्गः।१६। च छ ज झ ञ चवर्गः।१७। ट ठ ड ढ ण टवर्गः।१८। त थ द ध न तवर्गः।१९। प फ ब भ म पवर्गः।२०। इति स्पर्शाः।२१। अथान्तःस्थाः।२२। य र ल व।२३। इति अन्तःस्थाः।२४। अथोष्माणः।२५। श ष स ह।२६। अथोयोगवाहाः।२७। ᳲक जह्वामुलियः।२८। ᳲप उपध्मानीयः।२९। इति उष्माणः। ३०।  अः विसर्जनीयः।३१। अं अनुस्वारः।३२। कुँ खु़ँ खु़ँ घुँ यमाः।३३। एते वर्णास्त्रिषष्टिः।३४। हुँ नासिक्य एकेषाम्।३५।  इति अयोगवाहाः। ३६। ळ दुःस्पृष्टः एके।३७। चतुःषष्टिरित्येके।३८।  इति व्यञ्जनानि। ३९। एष क्रम वर्णानामिति।४०।

अग्निहोत्र विधि

अग्निहोत्र विधि  अव हम नित्यकर्म का तृतीय प्रश्न का उत्तर देते है। पञ्चभू संस्कार  पञ्चभू संस्कार जिसे प्राचीन गृह सूत्र मे लक्षणवृत भी कहते है उसको सभी संस्कारादि मै अग्नि स्थापना करना से पूर्व करना चाहिये। यह इसप्रकार है : १. यज्ञकुण्ड में स्थित धूलि को साफ करना।  २. कुण्ड को गोबर और जल से लीपना।  ३. व्रज (जो  काष्ठ का खंड होता है ) या उसके आभाव मे स्रुवमुल से यज्ञकुण्ड के बरावर तीन रेखाये पूर्व से उत्तर तक खींचना चाहिये।  ४.  व्रजसे खींची गई रेखाओं से मिट्टी को अङ्गुष्ठा और अनामिका से  अलग करे।  ५. जल से यज्ञकुण्ड को छिडके।  अग्निहोत्र पात्र   १. स्रुव -२ २. आज्यस्थाली -२  ३. प्रोक्षणी -१  ४. प्रणिता -१  ५. पञ्च पात्र और आचमनी-२ (यह गृह के जितना लोक होंगे उतने लोक केलिये एक एक ) ६. अग्निपात्र -१  ७. चिमिटा -१  ८. वज्र -१  ९. आसान -२ (यह गृह के जितना लोक होंगे उतने लोक केलिये एक एक ) १०. कुशा  ११. जल  १२. आज्य  १३...